Thursday, December 8, 2011

काम नहीं तो वेतन नहीं का नियम सांसदों पर क्‍यों न लागू हो ?

पिछले दिनों संसद का सत्र एफडीआई की वजह से महज कुछ ही घंटे ही चला और इसमें हमारी सरकार के करोड़ों रूपए बर्बाद हो गए और एक अनुमान के अनुसार इस करोड़ों रूपए में हमारे सांसदों को मिलने वाले वेतन व दैनिक भत्‍ते आदि ही 70-80 प्रतिशत से अधिक है । ऐसी स्थिति में मेरे अपने विचार से अब वह समय आ गया है जब हमारे सांसदों पर भी 'काम नहीं तो वेतन नहीं' जैसे नियमों को लागू कर, हमारी सरकार व न्‍यायपालिका को इसे नियंत्रित करने के लिए प्रयास शुरू कर देना चाहिए ।


आपको याद होगा कि पिछले दशक में हमारी न्‍यायपालिका द्वारा यह आदेश पारित हुआ था कि अगर सरकारी संस्‍थान के कर्मचा‍री वेतन व अन्‍य किसी बात पर असंतोष प्रगट कर, काम से अनुपस्थित रहते हैं तो उन्‍हें 'काम नहीं तो वेतन नहीं' के सिद्धांत के आधार पर उस दिन का वेतन नहीं दिया जाएगा । इसी के आधार पर आज भी सरकारी कर्मचारियों के हड़ताल पर जाने पर, उनका उस दिन का वेतन व भत्‍ता काटा जा रहा है । क्‍या अब समय नहीं आ गया है कि सरकारी खजाने की बर्बादी को रोकने व सरकारी खर्च में कटौती करने के उद्देश्‍य से 'काम नहीं तो वेतन नहीं' का यह नियम हमारे सांसदों व विधायकों पर भी सख्‍ती से लागू किया जाए । इससे जहॉं सरकारी खजाने की बर्बादी रूकेगी वहीं हमारे सांसदों व विधायकों पर भी सदन में उपस्थित रहकर, अपने कार्य को ठीक तरह से करने का दबाव भी बढ़ेगा जिससे वे अधिक कर्तव्‍य-निष्‍ठ व ईमानदार बनेंगे ।


आज हमारे सांसदों को लगभग रूपए 2,27,000/- वेतन व भत्‍तों के रूप में मिल रहे हैं और हमारे राज्‍यों के विधायकों को औसतन रूपए 50,000/- से लेकर रूपए 1,00,000/- व उससे अधिक की राशि वेतन व भत्‍तों के रूप में मिल रही है । इन सांसदों व विधायकों के वेतन व भत्‍तों में इतनीं अधिक वृद्धि के बावजूद इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि ये विधायक व सांसद सदन में उपस्थित रहेंगे ही । अक्‍सर प्रश्‍नकाल के दौरान प्रश्‍नकर्ता सांसद ही सदन से गैर हाजिर नजर आते हैं ।


इन सबके अतिरिक्‍त हमारे सांसद व विधायक जब-तब किसी-न-किसी बात पर असंतोष प्रगट करते हुए सदन का बहिर्गमन कर, सदन से सामूहिक रूप में अनुपस्थित रहकर, उसे अधिकार सम्‍मत दर्शाने का प्रयास कर रहे हैं । इसे किस प्रकार उचित माना जा सकता है ।


यह सच है कि हमारे सांसद व विधायक जनता के अपने चुने हुए प्रतिनिधि हैं और इनका अपना मुख्‍य कार्य अपने-अपने क्षेत्र के जनता की सेवा करना है किन्‍तु इसके लिए यह जरूरी है कि वे सदन में उपस्थित रहें क्‍योंकि तभी वे अपनी जनता की समस्‍याओं को सदन में उठा सकेंगे तथा उसी के अनुरूप नीतियों व योजनाओं को निर्मित कर, अपने क्षेत्र का विकास करने में सफल होंगे, किन्‍तु अगर हमारे सांसद विरोध आदि के नाम पर सदन से ही अनुपस्थित रहें तो अपने क्षेत्र का विकास किस तरह से करेंगे और वे अपनी जनता की शिकायतों का निपटारा कैसे करेंगे ?


अक्‍सर हमारे सांसद यह कहते हैं कि चूँकि वे अपनी जनता के अपने चुने हुए जन-प्रतिनिधि हैं, इसलिए उनका प्रमुख कार्य अपने क्षेत्र की विकासात्‍मक कार्यों में हिस्‍सा लेना और अपने क्षेत्र की शिकायतों का निवारण करना ही है, इसलिए सदन में उनकी अनुपस्थिति को उनके कार्य न करने के रूप में देखा जाना कतई उचित न होगा क्‍योंकि ऐसे समय में भी वे अपने क्षेत्र के विकासात्‍मक कार्यों में अथवा अपनी जनता की शिकायतों को सुनकर, उनका निवारण करने में व्‍यस्‍त रहते हैं ।


मेरी अपनी समझ से हमारे सांसदों का यह तर्क बेबुनियाद है और इसे उचित नहीं कहा जा सकता । यह इस प्रकार से कि अगर किसी सरकारी बैंक में ऋण वसूली क्षेत्र में कार्य करने वाला ऋण वसूली अधिकारी यह कहें कि उसका मुख्‍य कार्य तो दिए गए ऋणों की वसूली करना ही है और जमा-संग्रहण अभियान से जुड़ा अधिकारी यह कहें कि उसका मुख्‍य कार्य तो आम लोगों से अधिक-से-अधिक राशि जमा संग्रहित करना ही है, इसलिए कार्यालय में किसी भी दिन उनकी अनुस्थिति को उनके कार्य न करने के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, क्‍योंकि ऐसे समय में भी वे ऋण की वसूली व अपने ग्राहकों के जमाओं को संग्रहित करने के कार्यों में लगे होते हैं तो उनके इस तर्क को वह बैंक अथवा वह संस्‍था बिल्‍कुल भी स्‍वीकार नहीं करेगा, क्‍योंकि ऐसे अवसर पर भी इन अधिकारियों को अपने कार्य की पूर्व योजना बनाकर, इसकी पूर्वानुमति उन्‍हें अपने उच्‍चाधिकारियों से लेनी होती है और अपने कार्य की पूरी जानकारी उन्‍हें अपने कार्यालयीन उच्‍चाधिकारियों को प्रदान करनी होती है ।


इस तरह देश के सामान्‍य कार्यालयों में चली आ रही इस सामान्‍य सी अनुशसित परम्‍परा का पालन, क्‍या हमारे देश के शीर्ष संस्‍थाओं में विराजमान हमारे सांसदों व विधायकों को नहीं करना चाहिए ? चूँकि हमारे सांसद व विधायक देश के इस सर्वोच्‍च सदन के माननीय सदस्‍य हैं, इसलिए यदि वे किसी कारणवश संसद के सत्र चलने के दौरान सदन में अनु‍पस्थित रहते हैं तो क्‍या उन्‍हें इसकी पूर्वानुमति सदन से व उसके अध्‍यक्ष से नहीं लेनी चाहिए ? यही नहीं क्‍या अन्‍य संस्‍थाओं की भांति हमारे सांसदों व विधायकों को भी सत्र आरंभ होने पर अपनी कार्ययोजना सदन में प्रस्‍तुत कर, सदन से उसका अनुमोदन नहीं लेना चाहिए ? मेरे अपने विचार से सामान्‍य शिष्‍टाचार के ये मर्यादित व्‍यवहार हमारे सदन में भी लागू होने ही चाहिए ।

इसी प्रकार देश के किसी कार्यालय व संस्‍था के कर्मचारीगण यदि अपने किसी उच्‍चाधिकारी से विवाद होने पर अथवा अपने कार्यपालकों की किसी नीति के विरोधस्‍वरूप कार्य की अवज्ञा करते हुए, कार्यस्‍थल के बाहर धरने व प्रदर्शन पर बैठ जाते हैं तो हमारी सरकार व न्‍यायपालिका इन्‍हें हड़ताल पर जाया हुआ मानते हुए, 'काम नहीं तो वेतन नहीं' के नियम के अनुसार इनका उस दिन का वेतन व भत्‍ता काट रही हैं । जबकि हमारे जनता के चुने गए माननीय सांसदों व विधायकों का मुख्‍य कार्य जनता से जुड़ी विभिन्‍न कल्‍याणकारी योजनाओं को सदन के माध्‍यम से निर्मित कर, उन्‍हें लागू करवाना ही है । जब हमारे ये सांसद व विधायक अपने किसी मंत्री, सदन आदि के प्रति असंतुष्‍ट होकर विरोधस्‍वरूप सदन व उसके अध्‍यक्ष की अनुमति के बगैर सदन का बहिर्गमन कर, सदन के बाहर धरने व प्रदर्शन करने लगते हैं तो क्‍या इसे इनकी कार्य के प्रति अवज्ञा मानते हुए, हड़ताल के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए ? और 'काम नहीं तो वेतन नहीं' नियम के अनुसार क्‍या इनका भी उस दिन का वेतन व भत्‍ता नहीं काटा जाना चाहिए ?

यहॉं यह समझने योग्‍य तथ्‍य है कि संघ लोक सेवा आयोग, कर्मचारी चयन आयोग, रेल्‍वे भर्ती बोर्ड आदि की परीक्षाओं और साक्षात्‍कार समितियों से चुनकर जब कोई अभ्‍यर्थी किसी सरकारी कार्यालय के किसी विभाग में पदस्‍थापित होता है तो वह अपना चुनाव कराने वाली संघ लोक सेवा आयोग, कर्मचारी चयन आयोग आदि के प्रति जवाबदेह नहीं बनता है बल्कि अपने विभाग या कार्यालय के निकटस्‍थ उच्‍चाधिकारी के प्रति जवाबदेह होता है । जबकि हमारे सांसद व विधायक जनता द्वारा चुने जाने की वजह से स्‍वयं को सिर्फ जनता के प्रति ही जवाबदेह मानते हैं । इसलिए अक्‍सर हमारे सांसद व विधायक अपन ऊपर लगे आरोपों का कोई संतोषढंग जवाब, सदन व उसके अध्‍यक्ष को देना भी मुनासिब नहीं समझते । अगर सांसदों व विधायकों का यह तर्क देश के तमाम कार्यालयों व विभागों में लागू कर सभी अधिकारियों व कर्मचारियों को उनकी चयनित संस्‍था व व्‍यक्तियों के प्रति जवाबदेह बना दिया जाए तो इससे निश्चित ही हमारे देश में कार्यालयीन अराजकता की स्थिति निर्मित हो जाएगी और हमारे सभी कार्यालयीन कार्य देश की लोकसभा व राज्‍यसभा की तरह पूर्णत: ठप्‍प हो जाएंगे ।

वस्‍तुत: अन्‍य कार्यालयों में कार्यरत अधिकारियों व कर्मचारियों की भांति हमारे ये सांसद व विधायक भी सदन में कार्य के दौरान, सदन व उसके अध्‍यक्ष के प्रति पूर्णत: जवाबदेह होते हैं इसलिए यदि कोई सांसद, विधायक अथवा मंत्री अपने ऊपर लगे आरोपों अथवा कार्य के बारे में कोई संतोषजनक जवाब प्रस्‍तुत नहीं करता है या सदन के अध्‍यक्ष के आदेशों की अवहेलना करता है तो ऐसे सांसदों, विधायकों और मंत्री पर कठोर अनुशासनात्‍मक कार्रवाई होनी चाहिए ।

इस तरह आज लोकतंत्र के मंदिररूपी लोकसभा, राज्‍यसभा, विधानसभा के सदनों की गरिमा हमारे नेताओं के अमर्यादित व्‍यवहारों की वजह से पूर्णत: धूमिल हो रही है । हमने अपने सांसदों व विधायकों को अधिकार तो बहुत दिए हैं किन्‍तु उनके कर्तव्‍यों का कहीं कोई स्‍पष्‍ट उल्‍लेख हीं नहीं है । फलत: आज हमारे नेतागण पूर्णत: बेलगाम होकर, लोकतंत्र की इस गरिमा को नष्‍ट करने पर तुले हुए हैं । इसे रोकने हेतु हमारी सरकार व न्‍यायपालिका को, अपने सांसदों व विधायकों के कर्तव्‍यों का स्‍पष्‍ट उल्‍लेख करते हुए, उनके लिए एक आचारसंहिता का निर्माण करना चाहिए तथा 'काम नहीं तो वेतन नहीं' जैसे नियम उन पर सख्‍ती से लागू कर, उन्‍हें अधिक कर्तव्‍यपरायण बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए । इससे हमारे ये सांसद व विधायक अधिक कर्तव्‍य-निष्‍ठ होकर, देश व उसकी जनता की भलाई के लिए कुछ करने हेतु कटिबद्ध होंगे और हम इससे अपने लोकतंत्र की गरिमा को जहॉं पुन: स्‍थापित करने में सफल होंगे वहीं इसी तरह हम अपने लोकतंत्र को भी बचाने में कामयाब हो सकते हैं ।


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Thursday, April 9, 2009

आलेख - प्रेम : जगत का विलक्षण तत्व

भाँति-भाँति के पुष्पों से सुसज्जित किसी वाटिका के पुष्प जिस तरह से किसी मंदिर की छटा बिखेरते हैं, जिस तरह से किसी मंदिर के आगे जलता दीया अपनी रोशनाई को फैलाकर अपनी अर्थवत्ता को प्रगट करता है और जिस तरह शक्कर व्यक्ति के स्वाद में मिठास को घोलकर, उसे आनन्द विभूषित कर देती हैं, उसी तरह हमारा यह जगत प्रेम जैसे विलक्षण तत्व की सघनता में अपनी सार्थकता को प्राप्त करने के साथ ही सौंदर्यानुराग की अनबूझ अनुगूँज से महककर न केवल आल्हादित हो रहा है वरन् आज हमने इसके द्वारा परिपूर्ण रूप से तृप्त होने के रहस्य को जान लिया है । यही वजह है कि विद्वानों ने प्रेमहीन जगत को निरर्थक, निसार व मूल्यहीन करार दिया है ।
वास्तव में यह सम्पूर्ण जगत और इसकी सभी वस्तुएँ किसी अद्भुत रहस्यों के द्वारा एक दूसरे से गहनतौर पर जुड़ी हुई है । चूँकि मनुष्य इस जगत की एक श्रेष्ठतम कृति है तथा वह एक अति संवेदनशीन प्राणी है इसलिए हमने प्रकृति के इस अद्भुत रहस्य को न केवल जाना है वरन् हम इससे विचलित भी हुए हैं । यही वजह है कि आज प्रत्येक व्यक्ति अनुराग, वात्सल्य, भक्ति, लगाव आदि जैसे प्रेम के विविध रूपों के सहारे दूसरों के साथ जुड़ने के लिए अत्यंत व्याकुल नजर आता है ।
स्वयं दार्शनिकों के अपने मतानुसार यह सम्पूर्ण जगत और इसकी विभिन्न वस्तुएँ किसी पदार्थ के विखण्डन का ही परिणाम है और चूँकि यहाँ की सभी वस्तुएँ और प्राणी, पदार्थ के खंडित होने की वजह से निर्मित हुए है इसलिए वे स्वयं को अपूर्ण व अतृप्त महसूस करते हैं । मनुष्य इस जगत का अति संवेदनशील प्राणी है इसलिए उसने इस रहस्य को आत्यांतिक गहराई से अनुभव किया है और उसने अनुराग, लगाव, वात्सल्य आदि जैसे प्रेम के विविध रूपों के सहारे दूसरों के साथ जुड़कर स्वयं को तृप्त करने का रहस्य जान लिया है, यही वास्तव में प्रेम का भी अपना रहस्य है ।
इसी प्रकार प्रेम जीवन में संवेग को निर्मित करता है अर्थात् प्रेम से जीवन में गति आती है । यही वजह है कि बहुत से विद्वानों ने प्रेम को ही जीवन माना है । जब कभी किसी के जीवन में प्रेम का उदय होता है तो उसमें जीने की एक नई लालसा उमड़ पड़ती है क्योंकि प्रेम से व्यक्ति का मन प्रफुल्लित हो उठता है और उसमें उत्साह की एक नई तरंगें प्रवाहित होने लगती है । जो कि ऊर्जा का रूप धारण करके व्यक्ति में जीने का अदम्य साहस पैदा करती है । यह कुछ इस प्रकार से कि जिस प्रकार हमारे स्कूटर का "एक्सीलेटर" उसकी गति को बढ़ाने का कार्य करता है । ठीक उसी प्रकार प्रेम की ऊर्जा मिलने से जीवन में भी गति आ जाती है । यही कारण है कि बहुत से कवियों ने प्रेम के द्वारा आकाश में स्वच्छंद विचरण की कल्पना भी की ।
वास्तव में यह सम्पूर्ण जगत और इस पर आधारित जीवन एक अनजानी, अनपहचानी यात्रा है क्योंकि हममें से बहुत से लोग तो यह भी नहीं जानते कि प्रकृति द्वारा उन्हें यह जीवन किस विशेष उद्देश्य के तहत प्रदान किया गया है और वे यह जीवन क्यों कर झेल रहे हैं ।
विद्वान दार्शनिकों के अपने मतानुसार यह सम्पूर्ण जीवन समष्टि के साथ एक हो जाने की यात्रा है और प्रेम इस यात्रा की पहली सीढ़ी है क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति किसी के साथ प्रेम में पड़ता है तो वह उसके साथ आत्यांतिक गहराईयों में एक हो जाता है । इससे उसे असीम आनन्द की अनुभूति होने लगती है । यही नहीं यह आनन्द व्यक्ति के दिल की गहराईयों में पहुँचकर उसे व्याकुल भी कर देती है तथा उसके प्यास को बढ़ा देती है । इन सब वजहों से व्यक्ति इस आनन्द के विस्तार हेतु अन्यों के साथ भी प्रेम के सहारे जुड़ने के लिए प्रेरित होता है और इस तरह उसकी प्रेम के सहारे समष्टि के साथ एक हो जाने की यात्रा शुरू हो जाती है ।
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि मनुष्य बैचेन व अशांत चित्त के साथ ही जीता है और उसे यह बैचेनी जन्म के साथ स्वाभाविक रूप में प्राप्त होती है । वस्तुत: यह बैचेनी ही व्यक्ति को जीवन भर कुछ करने के लिए अभिप्रेरित करती है ।
जब जीवन भर कुछ करने और कुछ न करने के बाद भी व्यक्ति अपने जीवन में एक खालीपन व बैचेनी का अनुभव करता है तो वह अत्यधिक व्याकुल हो उठता है । वास्वत में भिन्न-भिन्न प्रकार के धर्मों व संप्रदायों की उत्पति व्यक्ति की इसी अशांति का परिणाम है किन्तु आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के अपने मतानुसार मनुष्य जीवन की यह अशांति और कुछ नहीं, उसके द्वारा प्रेम को ठीक ढंग से न समझने व उसे अपने जीवन में न अपनाने का ही परिणाम है ।
इसे तार्किक ढंग से समझाते हुए मनोवैज्ञानिकों ने बताया कि जब भी कोई बच्चा माँ के गर्भ में होता है तो वह माँ के आहारों के साथ स्वयं भी पोषण प्राप्त करता है और वह माँ के साँसों के साथ स्वयं साँस लेता है । इससे उसे एक अपूर्व तरह की शांति व सुख का अहसास होता है क्योंकि उस वक्त उसका अपना व्यक्तित्व उसकी माँ के साथ जुड़ा होता है और जब वह इस धरती पर आता है तो चिकित्सक माँ के साथ जुड़े बच्चे की नली को बड़ी बेरहमी से काटकर, उसे एक अलग व्यक्तित्व प्रदान करता है किन्तु इससे व्यक्ति के अपने अचेतन मन में, जीवन भर एक व्यक्तित्व के साथ कटकर अलग हो जाने का घाव बना रहता है तथा उसके अपने मन में माँ के गर्भावस्था में रहने के दौरान अचेतन की दशा में प्राप्त उस अपूर्व शांति की तलाश में जीवन भर बैचेन रहता है । यहीं वजह है कि व्यक्ति का मन प्रेम को पाने के लिए सदैव व्याकुल रहता है क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति प्रेम की गहराई में पड़ता है तो उसका हृदय उस दूसरे व्यक्ति के साथ मिलकर धड़कना शुरू हो जाता है और इस तरह प्रेम में दो व्यक्ति आपस में मिलकर एक हो जाते हैं जिससे व्यक्ति अचेतन की स्थिति में प्राप्त अपने उस सुख को पुन: अनुभव करने लगता है ।
संक्षेप में देखा जाए तो 'प्रेम' इस जगत की अद्भुत व चमत्कारी खोज है क्योंकि एक तरफ प्रेम जहाँ व्यक्ति में जीवन के प्रति अनुराग पैदा कर, उसके जीवन को गति प्रदान करती है वहीं दूसरी तरफ यह मनुष्य को समष्टि के साथ जुड़ने के लिए प्रेरित भी करती है । इतना ही नहीं प्रेम-पूर्ण सम्बन्धों की साकी में डूबकर ही मनुष्य, जहाँ अपूर्व आनन्द व शांति का अनुभव करता है वहीं प्रेम ही मनुष्य के स्वयं को और दूसरों को जानने का मापदंड रूपी यंत्र है । अत: यह सम्पूर्ण जगत प्रेम जैसे विलक्षण तत्व की उपस्थिति मात्र से ही महिमामंडित होकर धन्य हो गई है ।
- श्रीनिवास कृष्णन

Saturday, March 21, 2009

आलेख : धर्म और साम्प्रदायिकता

इस पृथ्वी की सभी वस्तुएँ अपने गुणधर्मों द्वारा आच्छादित है । जिस तरह से पानी का अपना स्वभाव नीचे की ओर बहना है तथा अग्नि का अपना स्वभाव, पास आने वालों को ताप व गर्मी में झुलसा देना है, ठीक उसी तरह मानव का अपना स्वाभाविक गुण सत्य व आनन्द की प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील रहना है और इस पृथ्वी के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों ने अपने-अपने सिध्दांतों, विचारों तथा विधियों के आधार पर इस दिशा में सफलता अर्जित की । इस तरह, एक व्यक्ति की सफलता से प्रेरित होकर उसके अपने अनुयायियों ने इन सिध्दांतों, विचारों को संग्रहित कर लिया और इस प्रकार विश्व में धर्म की स्थापना हुई ।
जब कालान्तर में इन विभिन्न मतों, सिध्दांतों आदि को मानने वाले लोगों का आपस में सामना हुआ तो उनमें अपने-अपने मतों, सिध्दांतों आदि को अधिक श्रेष्ठ व सही सिध्द करने की होड़ सी लग गई और शक्ति संतुलन के नाम पर निंदनीय रूप में, विश्व में धर्म के आधार पर संप्रदायों की नींव पड़ी । इसके फलस्वरूप विश्व के सभी लोग अपने-अपने संप्रदाय के व्यक्तियों को विशेष महत्व देने लगे और अन्य संप्रदायों को नीचा दिखाकर स्वयं को श्रेष्ठ व सिध्द करने की होड़ में लग गए । इस तरह हमने अपने जगत में 'साम्प्रदायिकता' का एक नया दानव प्रकट किया ।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि धर्म और संप्रदाय, जीवन के 'सत्य' और इस सत्य को पाने हेतु बने विधिविधान रूपी नदी की निकली दो अलग-अलग धाराएँ हैं । जिनके आपस में इस तरह से अलग हो जाने पर, हमारे समाज को जहाँ कुछ सीमाओं तक लाभ हुआ वहीं इससे हमारी मानवीय सभ्यता को गहरी क्षति भी पहुँची ।
हमने कालान्तर में अपने धर्मों को, इस जगत में, संप्रदायों के रूप में प्रस्थापित कर, समाज के सभी कृत्यों व व्यवहारों को हलके-फुलके तौर पर ही सही विभाजित कर दिया । इसके फलस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य के बारे में अधिक एकाग्रचित्त हो सका और इसने सामाजिक विकास में अपनी अहम भूमिका अदा की । इसे हम इस तरह समझ सकते हैं कि विभिन्न ऋषि-मुनियों, पुजारियों, पादरियों व मौलवियों आदि ने जहाँ धर्म की बागडोर अपने हाथ में थाम ली वहीं आम आदमी इनसे निश्ंचित होकर अपने संप्रदाय के विकास की ख़ातिर आर्थिक व भौतिक क्षेत्रों की ओर उन्मुख हुआ । इसके फलस्वरूप समाज में कुशल कारीगर, श्रेष्ठ कलाकर व उद्यमी पनप सके और समाज आर्थिक व सामाजिक क्षेत्रों में भी तेज़ी से प्रगति कर सका ।
विभिन्न धार्मिक मतों व सिध्दांतों में गंभीर विषमताओं की वजह से धर्म का विषय आम आदमी के लिए अत्यधिक गूढ़ व रहस्यमय हो गया किन्तु समाज में धर्मों के संप्रदाय के रूप में प्रस्थापित होने का सुखद परिणाम यह हुआ कि विभिन्न धर्मों के धार्मिक मत व सिध्दांत धर्म-ग्रंथों के नाम पर छोटे-छोटे खंडों में बट गए । जिसके फलस्वरूप आम आदमी के लिए इस पर गहन चिन्तन मनन कर, इसमें शोध करना सरल हो गया और वह इसे यादा गहराई से समझकर, इससे स्वयं को लाभान्वित कर सका । यही नहीं इस तरह धर्म की गहराई में डूबकर लाभान्वित हुए लोगों के अनुभवों से उसके संप्रदाय के अन्य लोग भी उपकृत हुए और इसने संप्रदायों के आत्म-शुध्दि व विकास में अपना अच्छा-खासा योगदान दिया । इसके फलस्वरूप संप्रदाय विशेष, आर्थिक व भौतिक क्षेत्रों में तेज़ी से प्रगति कर सकें । संक्षेप में हम कह सकते हैं कि इस तरह से संप्रदायों के बन जाने के फलस्वरूप धर्म जैसे गूढ़ विषय सरल होकर, आम आदमी की पहुँच में जहाँ आ गए वहीं संप्रदाय के लोग इस निकटता की वजह से धार्मिक विचारों की श्रेष्ठता को अधिक गहरे तौर पर अपनाकर, अपना स्वस्थ विकास करने में सफल हुए ।
इसी तरह समाज में धर्म व जाति के आधार पर बने संप्रदायों ने संघों/समितियों/गुटों के रूप में एक स्वचालित विकेन्द्रित व्यवस्था निर्मित की । इसमें इन संघों/समितियों/गुटों के कार्यकर्ताओं ने अपने लोगों को राजनैतिक व आर्थिक सहायता प्रदान करने का कार्य बखूबी ढंग से निभाया तथा इससे समाज का चँहमुखी विकास संभव हुआ । यही नहीं इससे विभिन्न धर्मों के प्रवर्तक, पादरी, पुजारी, मौलवी आदि भी धार्मिक संघों को निर्मित कर, अपने धर्म के अच्छे-अच्छे विचारों को अधिक युक्तियुक्त ढंग से लोगों तक पहुँचाने में सफल हुए, जिससे लोगों का स्वस्थ विकास भी संभव हुआ ।
समाज में धर्मों के संप्रदाय के रूप में विकास के परिणामस्वरुप, भिन्न-भिन्न धर्मों की अलग-अलग जातियों ने अपने सिध्दांतों व मतों के आधार पर जीविकोपार्जन के साधनों व व्यवसायों को अपना लिया, फलत: उस जाति विशेष के लोग इस कार्य अथवा व्यवसाय को पीढ़ी दर पीढ़ी करने लगे और उस जाति विशेष ने अपने कार्य में दक्षता हासिल कर ली, जिससे देश, समाज व संप्रदाय आदि सभी बहुत लाभान्वित हुए ।
इसी प्रकार, संप्रदायों के बन जाने से लोग जाति व संप्रदाय आदि के आधार पर बने समूहों में अधिक स्नेह पूर्वक रहने लगे और इसके फलस्वरूप प्रेम व स्नेह पूर्वक रहने की प्रक्रिया छोटे रूपों में ही सही, समाज में शुरू हुई । यही नहीं ये लोग अनुशासन व नीतिपरक विषयों को अपने संप्रदाय और उसके सामूहिक बहिष्कार की वजह से घबराकर मानने लगे । जिससे सामाजिक अनुशासन की स्थापना संभव हुई । इसके अलावा इन लोगों ने आपस में मिलकर, अपने धर्म के विकास के नाम पर मंदिरों, गिरिजाघरों आदि की स्थापना कर डाली, जिससे प्राप्त चंदा, दान आदि द्वारा बहुत से सामाजिक कल्याण के कार्य संभव हुए ।
जिस तरह से जीवन के साथ मृत्यु अनिवार्यत: जुड़ी हुई है तथा सुख के साथ दुख जुड़ा हुआ है ठीक उसी तरह से समाज में धर्मों के संप्रदायों के रूप में विकास से, जहाँ हमारे समाज को थोड़े बहुत लाभ हुए हैं वहीं उसे इस वजह से काफ़ी हानि भी उठानी पड़ी । विभिन्न विचारकों, चिंतकों के अभिमतों के अनुसार हमारे समाज को इससे लाभ होने की बजाय हानि ही यादा हुई है । यही वजह है कि विभिन्न संतों, महात्माओं तथा चिन्तकों ने अनेकों बार धर्म व संप्रदाय के बीच पड़ी विभाजन रेखा की प्रासंगिकता पर ही बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया ।
समाज में धर्मों व संप्रदायों के रूप में विकास का, सबसे दुःखद परिणाम यह रहा कि लोग धार्मिक विचारों व आदर्शों को संप्रदाय के बीच रहने की खातिर औपचारिकतावश ही यंत्रवत तरीक़े से मानने लगे, फलत: सही अर्थों में धार्मिक समाज के नाम पर झूठे आडम्बरपूर्ण समाज की स्थापना हुई और विभिन्न संप्रदायों के नाम पर, समाज के आपस में बँटे होने की वजह से लोगों में साम्प्रदायिकता का ज़हर घुल गया । इस तरह से समाज से धार्मिकता धीरे-धीरे कर पूर्णत: विलुप्त हो गई तथा इनका स्थान झूठे आडम्बरों ने ले लिया । जिसके चलते सभी संप्रदाय आपसी अहं के टकरावों के फलस्वरूप एक-दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास में जुट गए तथा इस साम्प्रदायिक विद्वेष ने साम्प्रदायिक दंगों का रूप धारण कर समाज का बहुत अधिक अहित किया । यही वजह है कि सभी विरोधी विचार-धारा के व्यक्ति भी इस विषय पर एकमत है कि धर्म व साम्प्रदायिकता के नाम पर इस संसार में जितने भी ख़ूनख़राबे हुए हैं उतना किसी और विषय के सम्बन्ध में नहीं । संक्षेप में हमने संप्रदायों को निर्मित कर, समाज से धार्मिकता को पूर्णत: विलीन कर दिया । इस तरह हमने एक ऐसे आडम्बरपूर्ण समाज की स्थापना की जिसने संप्रदायों की रक्षा के नाम पर दंगे, आगज़नी, लूटमार जैसे अधार्मिक कृत्यों को प्रोत्साहित कर, समाज में साम्प्रदायिकता का विषैला बीज बोया और समाज को इससे गहरी क्षति पहुँचाई ।
संप्रदायों के विकास का एक अन्य दुःखद परिणाम यह रहा कि इससे मनुष्य के खंडित होने या बँटने की प्रक्रिया निर्मित हो गई । जहाँ मनुष्य ने प्रारम्भ में संप्रदायों के नाम पर देश व राज्यों को निर्मित किया वहीं इससे लोगों में अपने संप्रदाय के लोगों को अधिक महत्व देने की बात घर कर गई तथा इससे साम्प्रदायिकता की भावना ही अधिक मज़बूत हुई । आज कश्मीर के मुसलमान आतंकवादियों द्वारा छेड़ा गया तथाकथित 'जेहाद' और कुछ वर्ष पूर्व पंजाब के आतंकवादियों द्वारा अपने संप्रदाय के लिए निर्मित किया जाने वाला तथाकथित 'खलिस्तान', देशों व राज्यों को संप्रदायों के आधार पर बाँटकर देखने की मनोवृत्ति का ही नतीजा है ।
प्रत्येक व्यक्ति भिन्न-भिन्न स्वभाव के होते हैं । यही वजह है कि भिन्न स्वभाव के व्यक्ति, एक ही सत्य को भिन्न-भिन्न आयामों में देखते हैं । आधुनिक युग के हम मनुष्यों का यह सचमुच में सौभाग्य है कि हम आधुनिक विज्ञान की बदौलत हम एक ऐसे विकसित समाज में रह रहे हैं जिसमें सभी व्यक्ति बिना किसी कठिनाई के भिन्न-भिन्न धर्मों के मतों व सिध्दांतों पर चिन्तन, मनन व प्रयोग कर, जीवन के वास्तविक सत्य के विभिन्न आयामों को जान सकते हैं और फिर वे इन विभिन्न आयामों में से अपने लिए उपयुक्त आयामों को खोजकर, उस धर्म के मतों व सिध्दांतों के अनुसार जीवन के वास्तविक सत्यों को पाकर, अपना उध्दार कर सकते हैं किन्तु आज धर्मों का संप्रदायों के रूप में विकास होने पर, प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे धर्मों के मतों व सिध्दांतों पर चिन्तन-मनन करने में, उसके अपने संप्रदाय के लोगों ने पूर्णत: रोक लगा दी । फलत: जब किसी व्यक्ति को अपने धर्म के मतों व सिध्दांतों की बजाय किसी अन्य धर्म के मतों व सिध्दांतों में जीवन के सत्य का जरा भी आभास हुआ और वह इस सम्बन्ध में चिन्तन-मनन करने लगा तो जहाँ उस दूसरे धर्म के लोग, उसे अपने संप्रदाय में शामिल करने के लिए प्रेरित करने लगे वहीं इससे उसके अपने धर्म के लोग, इसे अपने संप्रदाय के लिए ख़तरा मानते हुए, उस व्यक्ति को जी भरकर कोसने लगे । यही कारण है कि आज लोगों ने धर्म व जीवन के वास्तविक सत्यों के बारे में सोचना बिल्कुल ही बंद कर दिया है । संक्षेप में घोर साम्प्रदायिकता की भावना से घिरे हमारे समाज में आज धर्म व जीवन के वास्तविक सत्य जैसे विषय दो कौड़ी के होकर रह गए हैं ।
इसके अलावा अलग-अलग धर्मों में बँटे हमारे समाज के लोग अपने बेटे-बेटियों की शादियाँ भी अपने ही संप्रदाय में करने लगे और उनके अपने संप्रदाय के लोग अपने-अपने वर व वधू की प्रबल माँग को देखते हुए, शादी के अवसर पर दहेज/मेहर जैसी प्रथाओं के नाम पर रक़म एेंठने लगे । इस तरह जहाँ एक ओर धर्म पतित हुआ वहीं दूसरी ओर हमारी इस साम्प्रदायिक भावना ने कइयों का जीवन दुखाया । इसी प्रकार कुछ स्वार्थी तत्वों ने अन्य संप्रदायों के बारे में उल्टी-सीधी बातें फैलाकर, पहले अपने संप्रदाय में असुरक्षा की भावना पैदा की और बाद में वे अपने संप्रदायों के तथाकथित नेता व पालन हार बनकर ऐश करने लगे ।
सारंशत: हम यह कह सकते हैं कि व्यक्तिगत अहंकारों का संप्रदाय रूपी सामूहिक अहंकारों में विस्तार का नाम ही साम्प्रदायिकता है, जिसमें आज दंगे, हत्या, लूटमार आदि जैसे अधार्मिक कृत्य भी शामिल हो गए हैं, जबकि धर्म व्यक्ति मात्र से सम्बन्धित शुध्द, स्वस्थ व आदर्श व्यक्तित्व का नाम है तथा इसका समाज, संप्रदाय अथवा साम्प्रदायिकता आदि से लेश मात्र भी सम्बन्ध नहीं है ।
- श्रीनिवास कृष्णन

Sunday, March 15, 2009

कविता : मैं सागर भाँति ही प्रेम करूंगा

देखना सागर भाँति ही प्रेम करूंगा ।
लहरों की भाँति ही मैं बाहें फैलाउंगा ।
तट की माटी रूपी उसे अंकशयनी बनाऊंगा ।
और अपने प्रेम की सुवास बिखराऊंगा ।

हूँ भी मैं सागर की तरह थोड़ा खारा ।
फिर भी है गुण मुझ में ढेर सारा । .
थामुंगा जब किसी को अपनी बाहों में ।
छोडुंगा नहीं उसे कभी बीच राहों में ।

लहर रूपी मन लौटेगा मेरा बारम्बार ।
क्योंकि तट रूपी प्रेमिका करेगी मेरा हमेशा इंतजार ।
इस तरह होगा हमारा हजार बार संगम ।
फिर भी नहीं टूटेगा लहर भाँति कभी यह क्रम । .

देखना, मेरे प्रेम में होगी बहुत सी अच्छाई ।
क्योंकि होगी इसमें सागर की गहराई ।
और गहराई में खोज लूंगा, मैं वह मोती ।
जिससे कभी नहीं बुझ पाएगी हमारे प्रेम की ज्योति ।

सागर समान होगा मेरा प्रेम विशाल ।
अगर सुनाए वह कभी अपना दुखड़ा हाल ।
तो लहर भाँति फैल जाएगी मेरी यह बाहें ।
जिसमें बहुत सकुन पा, वह चैन से लेसकेगी आहें ।

लेकर इसी प्रेम का सहरा ।
बनाना चाहूं मैं घर एक प्यारा ।
अत: भगवन् प्रेम से भर दें मेरे हृदय की गागर
और सच में बनाना, तू मेरे प्रेम को सागर ।
- श्रीनिवास कृष्णन
E-Mail : shrinivas_krishnan@yahoo.co.uk
Web Site : www.shrivichar1.ewebsite.com

Saturday, March 7, 2009

महिला कोई अलग वर्ग नहीं - इसलिए महिला आरक्षण भी अनुचित

ईश्वर द्वारा निर्मित इस सृष्टि में पुरूष और स्त्री दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं और समाज के सभी वर्ग इन दोनों के सहयोग पर ही निर्भर है । ऐसी स्थिति में महिलाओं को एक अलग वर्ग का दर्जा देते हुए, उनके लिए आरक्षण की बात करना पूर्णत: बेमानी ही है क्योंकि आरक्षण का मुख्य उद्देश्य सुविधाओं और साधनों से वंचित समाज के किसी वर्ग को उचित सहायता प्रदान करना है जिससे वे विकास के पथपर अन्यों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सके । इस दृष्टि से अगर हम ईमानदारी से विचार करें तो हम पाएंगे कि जहाँ-जहाँ भी महिलाएँ प्रगति के पथ पर थोड़ी पीछे रह गई हैं, वहाँ-वहाँ इनके सहयोगी पुरूष भी शिक्षा व अन्य क्षेत्रों में बहुत पीछे हैं । अत: इन वर्गों के पुरूषों की स्थिति को नकारते हुए, सिर्फ महिलाओं के लिए ही सरकारी नौकरियों में आरक्षण की बात करना, समाज को एक गुमराह करने वाले कदम से अधिक और कुछ नहीं है क्योंकि हम स्त्री और पुरूष इन दोनों में से किसी एक की उपस्थिति के आधार पर समाज के किसी भी वर्ग की परिकल्पना नहीं कर सकते हैं । अत: एक के बारे में विकास की योजनाएँ बनाकर तथा दूसरे को पूर्णत: विस्मृत कर, हम सामाजिक विकास के किसी लक्ष्य को भी नहीं प्राप्त कर सकते हैं ।
यही नहीं जब हमारे पुरूषों के कंधे आर्थिकता के बोझ तले अत्यधिक दुखने लगे तो उन्होंने महिलाओं के कामकाजी होने की वकालत जोर-जोर से शुरू कर दी । फलत: आज महिलाओं पर घर और बाहर दोनों ही तरह की जिम्मेदारियां डालते हुए, उनका पुरूष वर्ग द्वारा बराबर शोषण ही किया जा रहा है । इस तरह आज हमारी कामकाजी महिलाओं को भी स्वालंबन और झूठे आडम्बर के बीच अपने जीवन का सुख एक मृग-मारिचिका सी ही प्रतीत हो रही है ।
इसी तरह यह एक कटु सत्य है कि हमारे देश की ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं ही अधिक कमजोर व पीड़ित है और सरकारी नौकरियों में महिलाओं के आरक्षण से शहरी क्षेत्र की शिक्षित महिलाओं को ही अत्यधिक फायदा पहुंचेगा, जिससे पहले से नौकरी को उपलब्ध घर में एक अतिरिक्त आय का साधन ही उपलब्ध होगा । इतना ही नहीं ये कामकाजी महिलाएँ नौकरी में अत्यधिक व्यस्तता की वजह से अपने घरेलू कार्यों को नौकरानी, महरी और आया के माध्यम से पूर्ण करती है और इस तरह वे समाज में एक अलग कमजोर व शोषित महिला वर्ग को निर्मित करती है ।
अत: मेरे अपने विचार से आज महिलाओं को नौकरी व पैसे को अपने जीवन का प्रमुख उद्देश्य मानने के स्थान पर, अपनी घरेलू जिम्मेदारियों को बखूबी ढंग से निभाते हुए, कुछ रचनात्मक कार्यों जैसे साहित्य-लेखन, संगीत, नृत्य व समाज-कल्याण की विभिन्न गतिविधियों में हिस्सा लेना चाहिए । इससे जहाँ समाज में उनकी मान-प्रतिष्ठा बढ़ेगी, वहीं इस तरह वे जीवन की अर्थवत्ता को प्राप्त कर, सही रूप में जीवन के सुख से भी परिचित होंगी ।
- श्रीनिवास कृष्णन