Thursday, December 8, 2011

काम नहीं तो वेतन नहीं का नियम सांसदों पर क्‍यों न लागू हो ?

पिछले दिनों संसद का सत्र एफडीआई की वजह से महज कुछ ही घंटे ही चला और इसमें हमारी सरकार के करोड़ों रूपए बर्बाद हो गए और एक अनुमान के अनुसार इस करोड़ों रूपए में हमारे सांसदों को मिलने वाले वेतन व दैनिक भत्‍ते आदि ही 70-80 प्रतिशत से अधिक है । ऐसी स्थिति में मेरे अपने विचार से अब वह समय आ गया है जब हमारे सांसदों पर भी 'काम नहीं तो वेतन नहीं' जैसे नियमों को लागू कर, हमारी सरकार व न्‍यायपालिका को इसे नियंत्रित करने के लिए प्रयास शुरू कर देना चाहिए ।


आपको याद होगा कि पिछले दशक में हमारी न्‍यायपालिका द्वारा यह आदेश पारित हुआ था कि अगर सरकारी संस्‍थान के कर्मचा‍री वेतन व अन्‍य किसी बात पर असंतोष प्रगट कर, काम से अनुपस्थित रहते हैं तो उन्‍हें 'काम नहीं तो वेतन नहीं' के सिद्धांत के आधार पर उस दिन का वेतन नहीं दिया जाएगा । इसी के आधार पर आज भी सरकारी कर्मचारियों के हड़ताल पर जाने पर, उनका उस दिन का वेतन व भत्‍ता काटा जा रहा है । क्‍या अब समय नहीं आ गया है कि सरकारी खजाने की बर्बादी को रोकने व सरकारी खर्च में कटौती करने के उद्देश्‍य से 'काम नहीं तो वेतन नहीं' का यह नियम हमारे सांसदों व विधायकों पर भी सख्‍ती से लागू किया जाए । इससे जहॉं सरकारी खजाने की बर्बादी रूकेगी वहीं हमारे सांसदों व विधायकों पर भी सदन में उपस्थित रहकर, अपने कार्य को ठीक तरह से करने का दबाव भी बढ़ेगा जिससे वे अधिक कर्तव्‍य-निष्‍ठ व ईमानदार बनेंगे ।


आज हमारे सांसदों को लगभग रूपए 2,27,000/- वेतन व भत्‍तों के रूप में मिल रहे हैं और हमारे राज्‍यों के विधायकों को औसतन रूपए 50,000/- से लेकर रूपए 1,00,000/- व उससे अधिक की राशि वेतन व भत्‍तों के रूप में मिल रही है । इन सांसदों व विधायकों के वेतन व भत्‍तों में इतनीं अधिक वृद्धि के बावजूद इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि ये विधायक व सांसद सदन में उपस्थित रहेंगे ही । अक्‍सर प्रश्‍नकाल के दौरान प्रश्‍नकर्ता सांसद ही सदन से गैर हाजिर नजर आते हैं ।


इन सबके अतिरिक्‍त हमारे सांसद व विधायक जब-तब किसी-न-किसी बात पर असंतोष प्रगट करते हुए सदन का बहिर्गमन कर, सदन से सामूहिक रूप में अनुपस्थित रहकर, उसे अधिकार सम्‍मत दर्शाने का प्रयास कर रहे हैं । इसे किस प्रकार उचित माना जा सकता है ।


यह सच है कि हमारे सांसद व विधायक जनता के अपने चुने हुए प्रतिनिधि हैं और इनका अपना मुख्‍य कार्य अपने-अपने क्षेत्र के जनता की सेवा करना है किन्‍तु इसके लिए यह जरूरी है कि वे सदन में उपस्थित रहें क्‍योंकि तभी वे अपनी जनता की समस्‍याओं को सदन में उठा सकेंगे तथा उसी के अनुरूप नीतियों व योजनाओं को निर्मित कर, अपने क्षेत्र का विकास करने में सफल होंगे, किन्‍तु अगर हमारे सांसद विरोध आदि के नाम पर सदन से ही अनुपस्थित रहें तो अपने क्षेत्र का विकास किस तरह से करेंगे और वे अपनी जनता की शिकायतों का निपटारा कैसे करेंगे ?


अक्‍सर हमारे सांसद यह कहते हैं कि चूँकि वे अपनी जनता के अपने चुने हुए जन-प्रतिनिधि हैं, इसलिए उनका प्रमुख कार्य अपने क्षेत्र की विकासात्‍मक कार्यों में हिस्‍सा लेना और अपने क्षेत्र की शिकायतों का निवारण करना ही है, इसलिए सदन में उनकी अनुपस्थिति को उनके कार्य न करने के रूप में देखा जाना कतई उचित न होगा क्‍योंकि ऐसे समय में भी वे अपने क्षेत्र के विकासात्‍मक कार्यों में अथवा अपनी जनता की शिकायतों को सुनकर, उनका निवारण करने में व्‍यस्‍त रहते हैं ।


मेरी अपनी समझ से हमारे सांसदों का यह तर्क बेबुनियाद है और इसे उचित नहीं कहा जा सकता । यह इस प्रकार से कि अगर किसी सरकारी बैंक में ऋण वसूली क्षेत्र में कार्य करने वाला ऋण वसूली अधिकारी यह कहें कि उसका मुख्‍य कार्य तो दिए गए ऋणों की वसूली करना ही है और जमा-संग्रहण अभियान से जुड़ा अधिकारी यह कहें कि उसका मुख्‍य कार्य तो आम लोगों से अधिक-से-अधिक राशि जमा संग्रहित करना ही है, इसलिए कार्यालय में किसी भी दिन उनकी अनुस्थिति को उनके कार्य न करने के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, क्‍योंकि ऐसे समय में भी वे ऋण की वसूली व अपने ग्राहकों के जमाओं को संग्रहित करने के कार्यों में लगे होते हैं तो उनके इस तर्क को वह बैंक अथवा वह संस्‍था बिल्‍कुल भी स्‍वीकार नहीं करेगा, क्‍योंकि ऐसे अवसर पर भी इन अधिकारियों को अपने कार्य की पूर्व योजना बनाकर, इसकी पूर्वानुमति उन्‍हें अपने उच्‍चाधिकारियों से लेनी होती है और अपने कार्य की पूरी जानकारी उन्‍हें अपने कार्यालयीन उच्‍चाधिकारियों को प्रदान करनी होती है ।


इस तरह देश के सामान्‍य कार्यालयों में चली आ रही इस सामान्‍य सी अनुशसित परम्‍परा का पालन, क्‍या हमारे देश के शीर्ष संस्‍थाओं में विराजमान हमारे सांसदों व विधायकों को नहीं करना चाहिए ? चूँकि हमारे सांसद व विधायक देश के इस सर्वोच्‍च सदन के माननीय सदस्‍य हैं, इसलिए यदि वे किसी कारणवश संसद के सत्र चलने के दौरान सदन में अनु‍पस्थित रहते हैं तो क्‍या उन्‍हें इसकी पूर्वानुमति सदन से व उसके अध्‍यक्ष से नहीं लेनी चाहिए ? यही नहीं क्‍या अन्‍य संस्‍थाओं की भांति हमारे सांसदों व विधायकों को भी सत्र आरंभ होने पर अपनी कार्ययोजना सदन में प्रस्‍तुत कर, सदन से उसका अनुमोदन नहीं लेना चाहिए ? मेरे अपने विचार से सामान्‍य शिष्‍टाचार के ये मर्यादित व्‍यवहार हमारे सदन में भी लागू होने ही चाहिए ।

इसी प्रकार देश के किसी कार्यालय व संस्‍था के कर्मचारीगण यदि अपने किसी उच्‍चाधिकारी से विवाद होने पर अथवा अपने कार्यपालकों की किसी नीति के विरोधस्‍वरूप कार्य की अवज्ञा करते हुए, कार्यस्‍थल के बाहर धरने व प्रदर्शन पर बैठ जाते हैं तो हमारी सरकार व न्‍यायपालिका इन्‍हें हड़ताल पर जाया हुआ मानते हुए, 'काम नहीं तो वेतन नहीं' के नियम के अनुसार इनका उस दिन का वेतन व भत्‍ता काट रही हैं । जबकि हमारे जनता के चुने गए माननीय सांसदों व विधायकों का मुख्‍य कार्य जनता से जुड़ी विभिन्‍न कल्‍याणकारी योजनाओं को सदन के माध्‍यम से निर्मित कर, उन्‍हें लागू करवाना ही है । जब हमारे ये सांसद व विधायक अपने किसी मंत्री, सदन आदि के प्रति असंतुष्‍ट होकर विरोधस्‍वरूप सदन व उसके अध्‍यक्ष की अनुमति के बगैर सदन का बहिर्गमन कर, सदन के बाहर धरने व प्रदर्शन करने लगते हैं तो क्‍या इसे इनकी कार्य के प्रति अवज्ञा मानते हुए, हड़ताल के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए ? और 'काम नहीं तो वेतन नहीं' नियम के अनुसार क्‍या इनका भी उस दिन का वेतन व भत्‍ता नहीं काटा जाना चाहिए ?

यहॉं यह समझने योग्‍य तथ्‍य है कि संघ लोक सेवा आयोग, कर्मचारी चयन आयोग, रेल्‍वे भर्ती बोर्ड आदि की परीक्षाओं और साक्षात्‍कार समितियों से चुनकर जब कोई अभ्‍यर्थी किसी सरकारी कार्यालय के किसी विभाग में पदस्‍थापित होता है तो वह अपना चुनाव कराने वाली संघ लोक सेवा आयोग, कर्मचारी चयन आयोग आदि के प्रति जवाबदेह नहीं बनता है बल्कि अपने विभाग या कार्यालय के निकटस्‍थ उच्‍चाधिकारी के प्रति जवाबदेह होता है । जबकि हमारे सांसद व विधायक जनता द्वारा चुने जाने की वजह से स्‍वयं को सिर्फ जनता के प्रति ही जवाबदेह मानते हैं । इसलिए अक्‍सर हमारे सांसद व विधायक अपन ऊपर लगे आरोपों का कोई संतोषढंग जवाब, सदन व उसके अध्‍यक्ष को देना भी मुनासिब नहीं समझते । अगर सांसदों व विधायकों का यह तर्क देश के तमाम कार्यालयों व विभागों में लागू कर सभी अधिकारियों व कर्मचारियों को उनकी चयनित संस्‍था व व्‍यक्तियों के प्रति जवाबदेह बना दिया जाए तो इससे निश्चित ही हमारे देश में कार्यालयीन अराजकता की स्थिति निर्मित हो जाएगी और हमारे सभी कार्यालयीन कार्य देश की लोकसभा व राज्‍यसभा की तरह पूर्णत: ठप्‍प हो जाएंगे ।

वस्‍तुत: अन्‍य कार्यालयों में कार्यरत अधिकारियों व कर्मचारियों की भांति हमारे ये सांसद व विधायक भी सदन में कार्य के दौरान, सदन व उसके अध्‍यक्ष के प्रति पूर्णत: जवाबदेह होते हैं इसलिए यदि कोई सांसद, विधायक अथवा मंत्री अपने ऊपर लगे आरोपों अथवा कार्य के बारे में कोई संतोषजनक जवाब प्रस्‍तुत नहीं करता है या सदन के अध्‍यक्ष के आदेशों की अवहेलना करता है तो ऐसे सांसदों, विधायकों और मंत्री पर कठोर अनुशासनात्‍मक कार्रवाई होनी चाहिए ।

इस तरह आज लोकतंत्र के मंदिररूपी लोकसभा, राज्‍यसभा, विधानसभा के सदनों की गरिमा हमारे नेताओं के अमर्यादित व्‍यवहारों की वजह से पूर्णत: धूमिल हो रही है । हमने अपने सांसदों व विधायकों को अधिकार तो बहुत दिए हैं किन्‍तु उनके कर्तव्‍यों का कहीं कोई स्‍पष्‍ट उल्‍लेख हीं नहीं है । फलत: आज हमारे नेतागण पूर्णत: बेलगाम होकर, लोकतंत्र की इस गरिमा को नष्‍ट करने पर तुले हुए हैं । इसे रोकने हेतु हमारी सरकार व न्‍यायपालिका को, अपने सांसदों व विधायकों के कर्तव्‍यों का स्‍पष्‍ट उल्‍लेख करते हुए, उनके लिए एक आचारसंहिता का निर्माण करना चाहिए तथा 'काम नहीं तो वेतन नहीं' जैसे नियम उन पर सख्‍ती से लागू कर, उन्‍हें अधिक कर्तव्‍यपरायण बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए । इससे हमारे ये सांसद व विधायक अधिक कर्तव्‍य-निष्‍ठ होकर, देश व उसकी जनता की भलाई के लिए कुछ करने हेतु कटिबद्ध होंगे और हम इससे अपने लोकतंत्र की गरिमा को जहॉं पुन: स्‍थापित करने में सफल होंगे वहीं इसी तरह हम अपने लोकतंत्र को भी बचाने में कामयाब हो सकते हैं ।


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