भाँति-भाँति के पुष्पों से सुसज्जित किसी वाटिका के पुष्प जिस तरह से किसी मंदिर की छटा बिखेरते हैं, जिस तरह से किसी मंदिर के आगे जलता दीया अपनी रोशनाई को फैलाकर अपनी अर्थवत्ता को प्रगट करता है और जिस तरह शक्कर व्यक्ति के स्वाद में मिठास को घोलकर, उसे आनन्द विभूषित कर देती हैं, उसी तरह हमारा यह जगत प्रेम जैसे विलक्षण तत्व की सघनता में अपनी सार्थकता को प्राप्त करने के साथ ही सौंदर्यानुराग की अनबूझ अनुगूँज से महककर न केवल आल्हादित हो रहा है वरन् आज हमने इसके द्वारा परिपूर्ण रूप से तृप्त होने के रहस्य को जान लिया है । यही वजह है कि विद्वानों ने प्रेमहीन जगत को निरर्थक, निसार व मूल्यहीन करार दिया है ।
वास्तव में यह सम्पूर्ण जगत और इसकी सभी वस्तुएँ किसी अद्भुत रहस्यों के द्वारा एक दूसरे से गहनतौर पर जुड़ी हुई है । चूँकि मनुष्य इस जगत की एक श्रेष्ठतम कृति है तथा वह एक अति संवेदनशीन प्राणी है इसलिए हमने प्रकृति के इस अद्भुत रहस्य को न केवल जाना है वरन् हम इससे विचलित भी हुए हैं । यही वजह है कि आज प्रत्येक व्यक्ति अनुराग, वात्सल्य, भक्ति, लगाव आदि जैसे प्रेम के विविध रूपों के सहारे दूसरों के साथ जुड़ने के लिए अत्यंत व्याकुल नजर आता है ।
स्वयं दार्शनिकों के अपने मतानुसार यह सम्पूर्ण जगत और इसकी विभिन्न वस्तुएँ किसी पदार्थ के विखण्डन का ही परिणाम है और चूँकि यहाँ की सभी वस्तुएँ और प्राणी, पदार्थ के खंडित होने की वजह से निर्मित हुए है इसलिए वे स्वयं को अपूर्ण व अतृप्त महसूस करते हैं । मनुष्य इस जगत का अति संवेदनशील प्राणी है इसलिए उसने इस रहस्य को आत्यांतिक गहराई से अनुभव किया है और उसने अनुराग, लगाव, वात्सल्य आदि जैसे प्रेम के विविध रूपों के सहारे दूसरों के साथ जुड़कर स्वयं को तृप्त करने का रहस्य जान लिया है, यही वास्तव में प्रेम का भी अपना रहस्य है ।
इसी प्रकार प्रेम जीवन में संवेग को निर्मित करता है अर्थात् प्रेम से जीवन में गति आती है । यही वजह है कि बहुत से विद्वानों ने प्रेम को ही जीवन माना है । जब कभी किसी के जीवन में प्रेम का उदय होता है तो उसमें जीने की एक नई लालसा उमड़ पड़ती है क्योंकि प्रेम से व्यक्ति का मन प्रफुल्लित हो उठता है और उसमें उत्साह की एक नई तरंगें प्रवाहित होने लगती है । जो कि ऊर्जा का रूप धारण करके व्यक्ति में जीने का अदम्य साहस पैदा करती है । यह कुछ इस प्रकार से कि जिस प्रकार हमारे स्कूटर का "एक्सीलेटर" उसकी गति को बढ़ाने का कार्य करता है । ठीक उसी प्रकार प्रेम की ऊर्जा मिलने से जीवन में भी गति आ जाती है । यही कारण है कि बहुत से कवियों ने प्रेम के द्वारा आकाश में स्वच्छंद विचरण की कल्पना भी की ।
वास्तव में यह सम्पूर्ण जगत और इस पर आधारित जीवन एक अनजानी, अनपहचानी यात्रा है क्योंकि हममें से बहुत से लोग तो यह भी नहीं जानते कि प्रकृति द्वारा उन्हें यह जीवन किस विशेष उद्देश्य के तहत प्रदान किया गया है और वे यह जीवन क्यों कर झेल रहे हैं ।
विद्वान दार्शनिकों के अपने मतानुसार यह सम्पूर्ण जीवन समष्टि के साथ एक हो जाने की यात्रा है और प्रेम इस यात्रा की पहली सीढ़ी है क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति किसी के साथ प्रेम में पड़ता है तो वह उसके साथ आत्यांतिक गहराईयों में एक हो जाता है । इससे उसे असीम आनन्द की अनुभूति होने लगती है । यही नहीं यह आनन्द व्यक्ति के दिल की गहराईयों में पहुँचकर उसे व्याकुल भी कर देती है तथा उसके प्यास को बढ़ा देती है । इन सब वजहों से व्यक्ति इस आनन्द के विस्तार हेतु अन्यों के साथ भी प्रेम के सहारे जुड़ने के लिए प्रेरित होता है और इस तरह उसकी प्रेम के सहारे समष्टि के साथ एक हो जाने की यात्रा शुरू हो जाती है ।
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि मनुष्य बैचेन व अशांत चित्त के साथ ही जीता है और उसे यह बैचेनी जन्म के साथ स्वाभाविक रूप में प्राप्त होती है । वस्तुत: यह बैचेनी ही व्यक्ति को जीवन भर कुछ करने के लिए अभिप्रेरित करती है ।
जब जीवन भर कुछ करने और कुछ न करने के बाद भी व्यक्ति अपने जीवन में एक खालीपन व बैचेनी का अनुभव करता है तो वह अत्यधिक व्याकुल हो उठता है । वास्वत में भिन्न-भिन्न प्रकार के धर्मों व संप्रदायों की उत्पति व्यक्ति की इसी अशांति का परिणाम है किन्तु आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के अपने मतानुसार मनुष्य जीवन की यह अशांति और कुछ नहीं, उसके द्वारा प्रेम को ठीक ढंग से न समझने व उसे अपने जीवन में न अपनाने का ही परिणाम है ।
इसे तार्किक ढंग से समझाते हुए मनोवैज्ञानिकों ने बताया कि जब भी कोई बच्चा माँ के गर्भ में होता है तो वह माँ के आहारों के साथ स्वयं भी पोषण प्राप्त करता है और वह माँ के साँसों के साथ स्वयं साँस लेता है । इससे उसे एक अपूर्व तरह की शांति व सुख का अहसास होता है क्योंकि उस वक्त उसका अपना व्यक्तित्व उसकी माँ के साथ जुड़ा होता है और जब वह इस धरती पर आता है तो चिकित्सक माँ के साथ जुड़े बच्चे की नली को बड़ी बेरहमी से काटकर, उसे एक अलग व्यक्तित्व प्रदान करता है किन्तु इससे व्यक्ति के अपने अचेतन मन में, जीवन भर एक व्यक्तित्व के साथ कटकर अलग हो जाने का घाव बना रहता है तथा उसके अपने मन में माँ के गर्भावस्था में रहने के दौरान अचेतन की दशा में प्राप्त उस अपूर्व शांति की तलाश में जीवन भर बैचेन रहता है । यहीं वजह है कि व्यक्ति का मन प्रेम को पाने के लिए सदैव व्याकुल रहता है क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति प्रेम की गहराई में पड़ता है तो उसका हृदय उस दूसरे व्यक्ति के साथ मिलकर धड़कना शुरू हो जाता है और इस तरह प्रेम में दो व्यक्ति आपस में मिलकर एक हो जाते हैं जिससे व्यक्ति अचेतन की स्थिति में प्राप्त अपने उस सुख को पुन: अनुभव करने लगता है ।
संक्षेप में देखा जाए तो 'प्रेम' इस जगत की अद्भुत व चमत्कारी खोज है क्योंकि एक तरफ प्रेम जहाँ व्यक्ति में जीवन के प्रति अनुराग पैदा कर, उसके जीवन को गति प्रदान करती है वहीं दूसरी तरफ यह मनुष्य को समष्टि के साथ जुड़ने के लिए प्रेरित भी करती है । इतना ही नहीं प्रेम-पूर्ण सम्बन्धों की साकी में डूबकर ही मनुष्य, जहाँ अपूर्व आनन्द व शांति का अनुभव करता है वहीं प्रेम ही मनुष्य के स्वयं को और दूसरों को जानने का मापदंड रूपी यंत्र है । अत: यह सम्पूर्ण जगत प्रेम जैसे विलक्षण तत्व की उपस्थिति मात्र से ही महिमामंडित होकर धन्य हो गई है ।
- श्रीनिवास कृष्णन
वास्तव में यह सम्पूर्ण जगत और इसकी सभी वस्तुएँ किसी अद्भुत रहस्यों के द्वारा एक दूसरे से गहनतौर पर जुड़ी हुई है । चूँकि मनुष्य इस जगत की एक श्रेष्ठतम कृति है तथा वह एक अति संवेदनशीन प्राणी है इसलिए हमने प्रकृति के इस अद्भुत रहस्य को न केवल जाना है वरन् हम इससे विचलित भी हुए हैं । यही वजह है कि आज प्रत्येक व्यक्ति अनुराग, वात्सल्य, भक्ति, लगाव आदि जैसे प्रेम के विविध रूपों के सहारे दूसरों के साथ जुड़ने के लिए अत्यंत व्याकुल नजर आता है ।
स्वयं दार्शनिकों के अपने मतानुसार यह सम्पूर्ण जगत और इसकी विभिन्न वस्तुएँ किसी पदार्थ के विखण्डन का ही परिणाम है और चूँकि यहाँ की सभी वस्तुएँ और प्राणी, पदार्थ के खंडित होने की वजह से निर्मित हुए है इसलिए वे स्वयं को अपूर्ण व अतृप्त महसूस करते हैं । मनुष्य इस जगत का अति संवेदनशील प्राणी है इसलिए उसने इस रहस्य को आत्यांतिक गहराई से अनुभव किया है और उसने अनुराग, लगाव, वात्सल्य आदि जैसे प्रेम के विविध रूपों के सहारे दूसरों के साथ जुड़कर स्वयं को तृप्त करने का रहस्य जान लिया है, यही वास्तव में प्रेम का भी अपना रहस्य है ।
इसी प्रकार प्रेम जीवन में संवेग को निर्मित करता है अर्थात् प्रेम से जीवन में गति आती है । यही वजह है कि बहुत से विद्वानों ने प्रेम को ही जीवन माना है । जब कभी किसी के जीवन में प्रेम का उदय होता है तो उसमें जीने की एक नई लालसा उमड़ पड़ती है क्योंकि प्रेम से व्यक्ति का मन प्रफुल्लित हो उठता है और उसमें उत्साह की एक नई तरंगें प्रवाहित होने लगती है । जो कि ऊर्जा का रूप धारण करके व्यक्ति में जीने का अदम्य साहस पैदा करती है । यह कुछ इस प्रकार से कि जिस प्रकार हमारे स्कूटर का "एक्सीलेटर" उसकी गति को बढ़ाने का कार्य करता है । ठीक उसी प्रकार प्रेम की ऊर्जा मिलने से जीवन में भी गति आ जाती है । यही कारण है कि बहुत से कवियों ने प्रेम के द्वारा आकाश में स्वच्छंद विचरण की कल्पना भी की ।
वास्तव में यह सम्पूर्ण जगत और इस पर आधारित जीवन एक अनजानी, अनपहचानी यात्रा है क्योंकि हममें से बहुत से लोग तो यह भी नहीं जानते कि प्रकृति द्वारा उन्हें यह जीवन किस विशेष उद्देश्य के तहत प्रदान किया गया है और वे यह जीवन क्यों कर झेल रहे हैं ।
विद्वान दार्शनिकों के अपने मतानुसार यह सम्पूर्ण जीवन समष्टि के साथ एक हो जाने की यात्रा है और प्रेम इस यात्रा की पहली सीढ़ी है क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति किसी के साथ प्रेम में पड़ता है तो वह उसके साथ आत्यांतिक गहराईयों में एक हो जाता है । इससे उसे असीम आनन्द की अनुभूति होने लगती है । यही नहीं यह आनन्द व्यक्ति के दिल की गहराईयों में पहुँचकर उसे व्याकुल भी कर देती है तथा उसके प्यास को बढ़ा देती है । इन सब वजहों से व्यक्ति इस आनन्द के विस्तार हेतु अन्यों के साथ भी प्रेम के सहारे जुड़ने के लिए प्रेरित होता है और इस तरह उसकी प्रेम के सहारे समष्टि के साथ एक हो जाने की यात्रा शुरू हो जाती है ।
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि मनुष्य बैचेन व अशांत चित्त के साथ ही जीता है और उसे यह बैचेनी जन्म के साथ स्वाभाविक रूप में प्राप्त होती है । वस्तुत: यह बैचेनी ही व्यक्ति को जीवन भर कुछ करने के लिए अभिप्रेरित करती है ।
जब जीवन भर कुछ करने और कुछ न करने के बाद भी व्यक्ति अपने जीवन में एक खालीपन व बैचेनी का अनुभव करता है तो वह अत्यधिक व्याकुल हो उठता है । वास्वत में भिन्न-भिन्न प्रकार के धर्मों व संप्रदायों की उत्पति व्यक्ति की इसी अशांति का परिणाम है किन्तु आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के अपने मतानुसार मनुष्य जीवन की यह अशांति और कुछ नहीं, उसके द्वारा प्रेम को ठीक ढंग से न समझने व उसे अपने जीवन में न अपनाने का ही परिणाम है ।
इसे तार्किक ढंग से समझाते हुए मनोवैज्ञानिकों ने बताया कि जब भी कोई बच्चा माँ के गर्भ में होता है तो वह माँ के आहारों के साथ स्वयं भी पोषण प्राप्त करता है और वह माँ के साँसों के साथ स्वयं साँस लेता है । इससे उसे एक अपूर्व तरह की शांति व सुख का अहसास होता है क्योंकि उस वक्त उसका अपना व्यक्तित्व उसकी माँ के साथ जुड़ा होता है और जब वह इस धरती पर आता है तो चिकित्सक माँ के साथ जुड़े बच्चे की नली को बड़ी बेरहमी से काटकर, उसे एक अलग व्यक्तित्व प्रदान करता है किन्तु इससे व्यक्ति के अपने अचेतन मन में, जीवन भर एक व्यक्तित्व के साथ कटकर अलग हो जाने का घाव बना रहता है तथा उसके अपने मन में माँ के गर्भावस्था में रहने के दौरान अचेतन की दशा में प्राप्त उस अपूर्व शांति की तलाश में जीवन भर बैचेन रहता है । यहीं वजह है कि व्यक्ति का मन प्रेम को पाने के लिए सदैव व्याकुल रहता है क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति प्रेम की गहराई में पड़ता है तो उसका हृदय उस दूसरे व्यक्ति के साथ मिलकर धड़कना शुरू हो जाता है और इस तरह प्रेम में दो व्यक्ति आपस में मिलकर एक हो जाते हैं जिससे व्यक्ति अचेतन की स्थिति में प्राप्त अपने उस सुख को पुन: अनुभव करने लगता है ।
संक्षेप में देखा जाए तो 'प्रेम' इस जगत की अद्भुत व चमत्कारी खोज है क्योंकि एक तरफ प्रेम जहाँ व्यक्ति में जीवन के प्रति अनुराग पैदा कर, उसके जीवन को गति प्रदान करती है वहीं दूसरी तरफ यह मनुष्य को समष्टि के साथ जुड़ने के लिए प्रेरित भी करती है । इतना ही नहीं प्रेम-पूर्ण सम्बन्धों की साकी में डूबकर ही मनुष्य, जहाँ अपूर्व आनन्द व शांति का अनुभव करता है वहीं प्रेम ही मनुष्य के स्वयं को और दूसरों को जानने का मापदंड रूपी यंत्र है । अत: यह सम्पूर्ण जगत प्रेम जैसे विलक्षण तत्व की उपस्थिति मात्र से ही महिमामंडित होकर धन्य हो गई है ।
- श्रीनिवास कृष्णन
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