इस पृथ्वी की सभी वस्तुएँ अपने गुणधर्मों द्वारा आच्छादित है । जिस तरह से पानी का अपना स्वभाव नीचे की ओर बहना है तथा अग्नि का अपना स्वभाव, पास आने वालों को ताप व गर्मी में झुलसा देना है, ठीक उसी तरह मानव का अपना स्वाभाविक गुण सत्य व आनन्द की प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील रहना है और इस पृथ्वी के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों ने अपने-अपने सिध्दांतों, विचारों तथा विधियों के आधार पर इस दिशा में सफलता अर्जित की । इस तरह, एक व्यक्ति की सफलता से प्रेरित होकर उसके अपने अनुयायियों ने इन सिध्दांतों, विचारों को संग्रहित कर लिया और इस प्रकार विश्व में धर्म की स्थापना हुई ।
जब कालान्तर में इन विभिन्न मतों, सिध्दांतों आदि को मानने वाले लोगों का आपस में सामना हुआ तो उनमें अपने-अपने मतों, सिध्दांतों आदि को अधिक श्रेष्ठ व सही सिध्द करने की होड़ सी लग गई और शक्ति संतुलन के नाम पर निंदनीय रूप में, विश्व में धर्म के आधार पर संप्रदायों की नींव पड़ी । इसके फलस्वरूप विश्व के सभी लोग अपने-अपने संप्रदाय के व्यक्तियों को विशेष महत्व देने लगे और अन्य संप्रदायों को नीचा दिखाकर स्वयं को श्रेष्ठ व सिध्द करने की होड़ में लग गए । इस तरह हमने अपने जगत में 'साम्प्रदायिकता' का एक नया दानव प्रकट किया ।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि धर्म और संप्रदाय, जीवन के 'सत्य' और इस सत्य को पाने हेतु बने विधिविधान रूपी नदी की निकली दो अलग-अलग धाराएँ हैं । जिनके आपस में इस तरह से अलग हो जाने पर, हमारे समाज को जहाँ कुछ सीमाओं तक लाभ हुआ वहीं इससे हमारी मानवीय सभ्यता को गहरी क्षति भी पहुँची ।
हमने कालान्तर में अपने धर्मों को, इस जगत में, संप्रदायों के रूप में प्रस्थापित कर, समाज के सभी कृत्यों व व्यवहारों को हलके-फुलके तौर पर ही सही विभाजित कर दिया । इसके फलस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य के बारे में अधिक एकाग्रचित्त हो सका और इसने सामाजिक विकास में अपनी अहम भूमिका अदा की । इसे हम इस तरह समझ सकते हैं कि विभिन्न ऋषि-मुनियों, पुजारियों, पादरियों व मौलवियों आदि ने जहाँ धर्म की बागडोर अपने हाथ में थाम ली वहीं आम आदमी इनसे निश्ंचित होकर अपने संप्रदाय के विकास की ख़ातिर आर्थिक व भौतिक क्षेत्रों की ओर उन्मुख हुआ । इसके फलस्वरूप समाज में कुशल कारीगर, श्रेष्ठ कलाकर व उद्यमी पनप सके और समाज आर्थिक व सामाजिक क्षेत्रों में भी तेज़ी से प्रगति कर सका ।
विभिन्न धार्मिक मतों व सिध्दांतों में गंभीर विषमताओं की वजह से धर्म का विषय आम आदमी के लिए अत्यधिक गूढ़ व रहस्यमय हो गया किन्तु समाज में धर्मों के संप्रदाय के रूप में प्रस्थापित होने का सुखद परिणाम यह हुआ कि विभिन्न धर्मों के धार्मिक मत व सिध्दांत धर्म-ग्रंथों के नाम पर छोटे-छोटे खंडों में बट गए । जिसके फलस्वरूप आम आदमी के लिए इस पर गहन चिन्तन मनन कर, इसमें शोध करना सरल हो गया और वह इसे यादा गहराई से समझकर, इससे स्वयं को लाभान्वित कर सका । यही नहीं इस तरह धर्म की गहराई में डूबकर लाभान्वित हुए लोगों के अनुभवों से उसके संप्रदाय के अन्य लोग भी उपकृत हुए और इसने संप्रदायों के आत्म-शुध्दि व विकास में अपना अच्छा-खासा योगदान दिया । इसके फलस्वरूप संप्रदाय विशेष, आर्थिक व भौतिक क्षेत्रों में तेज़ी से प्रगति कर सकें । संक्षेप में हम कह सकते हैं कि इस तरह से संप्रदायों के बन जाने के फलस्वरूप धर्म जैसे गूढ़ विषय सरल होकर, आम आदमी की पहुँच में जहाँ आ गए वहीं संप्रदाय के लोग इस निकटता की वजह से धार्मिक विचारों की श्रेष्ठता को अधिक गहरे तौर पर अपनाकर, अपना स्वस्थ विकास करने में सफल हुए ।
इसी तरह समाज में धर्म व जाति के आधार पर बने संप्रदायों ने संघों/समितियों/गुटों के रूप में एक स्वचालित विकेन्द्रित व्यवस्था निर्मित की । इसमें इन संघों/समितियों/गुटों के कार्यकर्ताओं ने अपने लोगों को राजनैतिक व आर्थिक सहायता प्रदान करने का कार्य बखूबी ढंग से निभाया तथा इससे समाज का चँहमुखी विकास संभव हुआ । यही नहीं इससे विभिन्न धर्मों के प्रवर्तक, पादरी, पुजारी, मौलवी आदि भी धार्मिक संघों को निर्मित कर, अपने धर्म के अच्छे-अच्छे विचारों को अधिक युक्तियुक्त ढंग से लोगों तक पहुँचाने में सफल हुए, जिससे लोगों का स्वस्थ विकास भी संभव हुआ ।
समाज में धर्मों के संप्रदाय के रूप में विकास के परिणामस्वरुप, भिन्न-भिन्न धर्मों की अलग-अलग जातियों ने अपने सिध्दांतों व मतों के आधार पर जीविकोपार्जन के साधनों व व्यवसायों को अपना लिया, फलत: उस जाति विशेष के लोग इस कार्य अथवा व्यवसाय को पीढ़ी दर पीढ़ी करने लगे और उस जाति विशेष ने अपने कार्य में दक्षता हासिल कर ली, जिससे देश, समाज व संप्रदाय आदि सभी बहुत लाभान्वित हुए ।
इसी प्रकार, संप्रदायों के बन जाने से लोग जाति व संप्रदाय आदि के आधार पर बने समूहों में अधिक स्नेह पूर्वक रहने लगे और इसके फलस्वरूप प्रेम व स्नेह पूर्वक रहने की प्रक्रिया छोटे रूपों में ही सही, समाज में शुरू हुई । यही नहीं ये लोग अनुशासन व नीतिपरक विषयों को अपने संप्रदाय और उसके सामूहिक बहिष्कार की वजह से घबराकर मानने लगे । जिससे सामाजिक अनुशासन की स्थापना संभव हुई । इसके अलावा इन लोगों ने आपस में मिलकर, अपने धर्म के विकास के नाम पर मंदिरों, गिरिजाघरों आदि की स्थापना कर डाली, जिससे प्राप्त चंदा, दान आदि द्वारा बहुत से सामाजिक कल्याण के कार्य संभव हुए ।
जिस तरह से जीवन के साथ मृत्यु अनिवार्यत: जुड़ी हुई है तथा सुख के साथ दुख जुड़ा हुआ है ठीक उसी तरह से समाज में धर्मों के संप्रदायों के रूप में विकास से, जहाँ हमारे समाज को थोड़े बहुत लाभ हुए हैं वहीं उसे इस वजह से काफ़ी हानि भी उठानी पड़ी । विभिन्न विचारकों, चिंतकों के अभिमतों के अनुसार हमारे समाज को इससे लाभ होने की बजाय हानि ही यादा हुई है । यही वजह है कि विभिन्न संतों, महात्माओं तथा चिन्तकों ने अनेकों बार धर्म व संप्रदाय के बीच पड़ी विभाजन रेखा की प्रासंगिकता पर ही बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया ।
समाज में धर्मों व संप्रदायों के रूप में विकास का, सबसे दुःखद परिणाम यह रहा कि लोग धार्मिक विचारों व आदर्शों को संप्रदाय के बीच रहने की खातिर औपचारिकतावश ही यंत्रवत तरीक़े से मानने लगे, फलत: सही अर्थों में धार्मिक समाज के नाम पर झूठे आडम्बरपूर्ण समाज की स्थापना हुई और विभिन्न संप्रदायों के नाम पर, समाज के आपस में बँटे होने की वजह से लोगों में साम्प्रदायिकता का ज़हर घुल गया । इस तरह से समाज से धार्मिकता धीरे-धीरे कर पूर्णत: विलुप्त हो गई तथा इनका स्थान झूठे आडम्बरों ने ले लिया । जिसके चलते सभी संप्रदाय आपसी अहं के टकरावों के फलस्वरूप एक-दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास में जुट गए तथा इस साम्प्रदायिक विद्वेष ने साम्प्रदायिक दंगों का रूप धारण कर समाज का बहुत अधिक अहित किया । यही वजह है कि सभी विरोधी विचार-धारा के व्यक्ति भी इस विषय पर एकमत है कि धर्म व साम्प्रदायिकता के नाम पर इस संसार में जितने भी ख़ूनख़राबे हुए हैं उतना किसी और विषय के सम्बन्ध में नहीं । संक्षेप में हमने संप्रदायों को निर्मित कर, समाज से धार्मिकता को पूर्णत: विलीन कर दिया । इस तरह हमने एक ऐसे आडम्बरपूर्ण समाज की स्थापना की जिसने संप्रदायों की रक्षा के नाम पर दंगे, आगज़नी, लूटमार जैसे अधार्मिक कृत्यों को प्रोत्साहित कर, समाज में साम्प्रदायिकता का विषैला बीज बोया और समाज को इससे गहरी क्षति पहुँचाई ।
संप्रदायों के विकास का एक अन्य दुःखद परिणाम यह रहा कि इससे मनुष्य के खंडित होने या बँटने की प्रक्रिया निर्मित हो गई । जहाँ मनुष्य ने प्रारम्भ में संप्रदायों के नाम पर देश व राज्यों को निर्मित किया वहीं इससे लोगों में अपने संप्रदाय के लोगों को अधिक महत्व देने की बात घर कर गई तथा इससे साम्प्रदायिकता की भावना ही अधिक मज़बूत हुई । आज कश्मीर के मुसलमान आतंकवादियों द्वारा छेड़ा गया तथाकथित 'जेहाद' और कुछ वर्ष पूर्व पंजाब के आतंकवादियों द्वारा अपने संप्रदाय के लिए निर्मित किया जाने वाला तथाकथित 'खलिस्तान', देशों व राज्यों को संप्रदायों के आधार पर बाँटकर देखने की मनोवृत्ति का ही नतीजा है ।
प्रत्येक व्यक्ति भिन्न-भिन्न स्वभाव के होते हैं । यही वजह है कि भिन्न स्वभाव के व्यक्ति, एक ही सत्य को भिन्न-भिन्न आयामों में देखते हैं । आधुनिक युग के हम मनुष्यों का यह सचमुच में सौभाग्य है कि हम आधुनिक विज्ञान की बदौलत हम एक ऐसे विकसित समाज में रह रहे हैं जिसमें सभी व्यक्ति बिना किसी कठिनाई के भिन्न-भिन्न धर्मों के मतों व सिध्दांतों पर चिन्तन, मनन व प्रयोग कर, जीवन के वास्तविक सत्य के विभिन्न आयामों को जान सकते हैं और फिर वे इन विभिन्न आयामों में से अपने लिए उपयुक्त आयामों को खोजकर, उस धर्म के मतों व सिध्दांतों के अनुसार जीवन के वास्तविक सत्यों को पाकर, अपना उध्दार कर सकते हैं किन्तु आज धर्मों का संप्रदायों के रूप में विकास होने पर, प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे धर्मों के मतों व सिध्दांतों पर चिन्तन-मनन करने में, उसके अपने संप्रदाय के लोगों ने पूर्णत: रोक लगा दी । फलत: जब किसी व्यक्ति को अपने धर्म के मतों व सिध्दांतों की बजाय किसी अन्य धर्म के मतों व सिध्दांतों में जीवन के सत्य का जरा भी आभास हुआ और वह इस सम्बन्ध में चिन्तन-मनन करने लगा तो जहाँ उस दूसरे धर्म के लोग, उसे अपने संप्रदाय में शामिल करने के लिए प्रेरित करने लगे वहीं इससे उसके अपने धर्म के लोग, इसे अपने संप्रदाय के लिए ख़तरा मानते हुए, उस व्यक्ति को जी भरकर कोसने लगे । यही कारण है कि आज लोगों ने धर्म व जीवन के वास्तविक सत्यों के बारे में सोचना बिल्कुल ही बंद कर दिया है । संक्षेप में घोर साम्प्रदायिकता की भावना से घिरे हमारे समाज में आज धर्म व जीवन के वास्तविक सत्य जैसे विषय दो कौड़ी के होकर रह गए हैं ।
इसके अलावा अलग-अलग धर्मों में बँटे हमारे समाज के लोग अपने बेटे-बेटियों की शादियाँ भी अपने ही संप्रदाय में करने लगे और उनके अपने संप्रदाय के लोग अपने-अपने वर व वधू की प्रबल माँग को देखते हुए, शादी के अवसर पर दहेज/मेहर जैसी प्रथाओं के नाम पर रक़म एेंठने लगे । इस तरह जहाँ एक ओर धर्म पतित हुआ वहीं दूसरी ओर हमारी इस साम्प्रदायिक भावना ने कइयों का जीवन दुखाया । इसी प्रकार कुछ स्वार्थी तत्वों ने अन्य संप्रदायों के बारे में उल्टी-सीधी बातें फैलाकर, पहले अपने संप्रदाय में असुरक्षा की भावना पैदा की और बाद में वे अपने संप्रदायों के तथाकथित नेता व पालन हार बनकर ऐश करने लगे ।
सारंशत: हम यह कह सकते हैं कि व्यक्तिगत अहंकारों का संप्रदाय रूपी सामूहिक अहंकारों में विस्तार का नाम ही साम्प्रदायिकता है, जिसमें आज दंगे, हत्या, लूटमार आदि जैसे अधार्मिक कृत्य भी शामिल हो गए हैं, जबकि धर्म व्यक्ति मात्र से सम्बन्धित शुध्द, स्वस्थ व आदर्श व्यक्तित्व का नाम है तथा इसका समाज, संप्रदाय अथवा साम्प्रदायिकता आदि से लेश मात्र भी सम्बन्ध नहीं है ।
- श्रीनिवास कृष्णन
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